Wednesday, May 5, 2021

ध्वनि बोध


हमने बचपन से सुना 

आवश्यक है 

जवाब ढूंढना 

सवाल पूछना 

और मौन रहना 

आरोही क्रम में । 


हमारे बोध से बाहर  ही रही 

जरूरत, कब और कितनी सही 

ध्वनि और निःशब्दता  की । 


Tuesday, November 17, 2020

मोशन सिकनेस




चालीस - सौ गायें 

बैठी थी बीच चौराहे 

लखनऊ के। 

जैसे धरना  देते प्रदर्शनकारी

 बिना कैमरे के। 

सरकारी अनुमानों से भी बङा लगता है 

चालीस और सौ का अंतर 

पर मैं देख रहा था सीधे, एकदम सीधे, बिना मन मचलाए निरंतर।

सारे नुस्खे आजमाने के बाद मा ने किया था ऐलान,

" तुम्हारे अंदर ठहराव नही; भटकती रहती है तुम्हारी आँखे और आने लगती है तुम्हे उबकाई ।

अगर बैठी रहो नजर सीधे साध कर और मन बाँध कर फिर देखो,  इसमे है तुम्हारी भलाई ।"

शासक चाहे घर के हो या राज्य के

सर आँखो पर होते है उनके आदेश सारे ,

लिहाजा मुङकर नही देखे गए राजधानी के चौराहे ।

यूं तो ईजाद कर ली गई है मोशन सिकनेस की दवा

पर इसके लिए कबूल करनी होती है बीमारी।

कबूलनामो को समझा जाता है कमी, कमजोरी 

"मैं नही मानती तुम्हे कमजोर! "

 "क्यों ?"

क्योंकि बस मानने से झूठ या सच की बढ़ती हैं ताकत,

और कैमरे के उस तरफ वालों के अनुसार 

गायों का मानना हैं कि एक योगी के निर्णय नही होते गलत।

Saturday, July 18, 2020

An old story with new names.



                           कीटनाशक                       



इतिहास की लाठी के सहारे चलता हुआ एक देश 
उसके आभासी मध्य मे स्थित एक प्रदेश। 
उस मध्यता के किसी कोने मे मरता एक परिवार 
आँख चुराकर देखे नृत्य मृत्यु का सकल संसार। 

जब फसलों को दिए जाने वाले कीटनाशक 
को किसान का पेय बनते देखेंगे बालक। 
इकट्ठा हुई भीड़ के कैमरे उन्हे विश्वास दिला देंगे 
गरीब और कीट के अंतर के दीवार गिरा देंगे। 

तमाशा अभी खत्म नहीं, बैठाई जाएगी जाँच 
होगी कारवाई, बनेगी रिपोर्ट, सुर्खियों की बढ़ाई जाएगी आँच। 
दो-दो हाथ करेंगे अफसरशाही और मौलिक अधिकार
मिट्टी के मालिक मौत से करेंगे न्याय की गुहार।           


                                  










Friday, June 12, 2020

हवाई बंटवारा 


इससे पहले की भेदभाव हो जाए तबाह,
और समानता का राज हो जाए। 
आओ हम बाँट दे हवा 
आब-ओ-हवा पक्षपाती  हो जाए ।

कुछ काली
कुछ गोरी हो जाए।
और सांवली-
सी समीर थोङी हो जाए।

 एक हो साक्षर वायु जो चले वेग से,
 उसके अलग एक समूह अनिल अनपढ़ हो जाए। 
बहे जो बादलों के पास वो समीर सरकारी 
जो रेंगे झुग्गी झोपड़ियों मे तो मारुत मुलजिम हो जाए। 

आधी अबला फिजा होगी,
बाकी पवन नर हो जाए।
अमुक बने  तिलकधारी हिन्दू ,
फलां फलां  मुसलमान हो जाए ।

नापा जाए  इक हिस्सा देसी हवा का
सीमा से परे सब परदेसी हो जाए।
हवा चले चाल इंसानों की,
बयार -ए- बंटवारा मे हर किसी का दम घुट जाए। 

Sunday, May 31, 2020

चादर

वो तो अच्छा हुआ कि नहीं ओढ़ते चादर,
मछली, शेर या जीव जैसे चमगादङ।
वरना कैमरे से मशहूर हो जाते,
और इंसानो से ज्यादा कू्र हो जाते।
जैसे छाए हर पर्दे पर भले क्षणिक
मृत मानुष माॅ और बालक इक ।
न शोक की लहर उठी न आंखे तरल हुई
औरत उसपर भी गरीब, मृत आज होए या कल हुई।
कृष्ण गलत कह गए कि अजर-अमर भए आत्मा
वो देश बस इन्द्रियो पर है जिंदा, जहा मरी प्यास पीङित मा।
उस बालक को कुछ याद रहेगा, या कुछ भी भुला पाएगा ।
जीवन पर्यंत चादर ओढेगा, या हर कतरे से कतराएगा।
     
                                                                                

 चाहत